क्या इज़रायल को ट्रंप का अंध-समर्थन अस्थिरता को बढ़ावा देगा?

अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव के दौरान डोनाल्ड ट्रंप और हिलेरी क्लिंटन में इस बात की होड़ लगी थी कि कौन इज़रायल का सबसे बड़ा पैरोकार है. इसका तात्कालिक कारण कट्टर अमेरिकी-यहूदियों का वोट और चंदा था, पर इसके दीर्घकालिक कारण अमेरिका का स्थायी इजरायल प्रेम है जो अरब के देशों पर दबाव की राजनीति का एक हथियार भी है.

बहरहाल, बुधवार को राष्ट्रपति ट्रंप और प्रधानमंत्री नेतन्याहू की बीच बातचीत से यह बात स्पष्ट हो गयी कि ट्रंप को अलग फिलिस्तीनी राज्य से परहेज है, उन्हें वेस्ट बैंक में जबरन बनायी जा रही कॉलोनियों से कोई परेशानी नहीं है तथा वे अमेरिकी दूतावास को तेलअवीव से जेरूसलेम स्थानांतरित करने की प्रक्रिया में हैं.

हालांकि उन्होंने यह जरूर कहा कि दोनों पक्ष ‘शांति’ के लिए जो तय करेंगे, उन्हें मंजूर होगा. वहीं इजरायली प्रधानमंत्री ने कहा कि अगर दो अलग राज्य बनते हैं, तो पूरे इलाके की सुरक्षा का जिम्मा इज़रायल के हाथों में होगी.

मतलब यह कि आधिकारिक रूप से अमेरिकी की दो-राज्य नीति को खारिज तो नहीं किया गया, पर विवरण से साफ है कि फिलस्तीन को अलग करने में ट्रंप की कोई दिलचस्पी नहीं है.

ट्रंप के निर्वाचन के साथ ही इजरायल का धुर-दक्षिणपंथी तबका जोश में है और कब्ज़ा की गयी जमीन पर यहूदियों को बसाने का काम तेज कर दिया गया है. नेतन्याहू अपनी आक्रामक नीति पर ट्रंप की मुहर लेकर वाशिंगटन से लौटेंगे.

निश्चित रूप से फिलीस्तीनियों के लिए यह बड़ा झटका है और इसका हिंसक प्रतिवाद होने की संभावना बलवती हो गयी है. अरब में अमेरिका के मित्र-राष्ट्रों को भी इससे परेशानी हो सकती है, लेकिन उनके स्वार्थी रवैये के इतिहास को देखते हुए ऐसा नहीं लगता कि वे कोई ठोस विरोध दर्ज करायेंगे.

ईरान के विरुद्ध ट्रंप और नेतन्याहू के तेवर सऊदी अरब और उसके पिछलग्गू खाड़ी देशों तथा मिस्र को खूब रास आ रहे हैं. पिछले दिनों रूस के साथ भी इज़रायल ने अपने संबंध सामान्य करने के प्रयास किया है और फिलहाल उसकी प्राथमिकता सीरिया के बशर-अल-असद को बचाने की है.

इतना जरूर है कि पुतिन ईरान पर अमेरिकी-इज़रायली हमले की स्थिति नहीं आने देंगे और नई परिस्थितियों में वे अरब में अपनी उपस्थिति को मजबूत करने की कोशिश करेंगे.

आने वाले दिनों में महाशक्तियों की टकराहट का बड़ा मंच लीबिया और यमन बनेंगे. ऐसे में फिलीस्तीन का मसला एक बार फिर हाशिये पर चला जायेगा. फिलीस्तीन की राजनीति में अब हमास का ज़ोर वेस्ट बैंक में भी बढ़ेगा.

अमेरिका के भीतर एक बड़ा तबका इज़रायल द्वारा फिलीस्तीनियों पर अन्याय और अत्याचार से नाराज़ रहता है. वहां ट्रंप की अनेक नीतियों को लेकर असंतोष बढ़ रहा है. इसमें अब यह मसला भी जुड़ जायेगा.

यह सही बात है कि ट्रंप की नीतियों ने मौजूदा विश्व-व्यवस्था को अनिश्चितता के कगार पर ला खड़ा किया जिसमें उन्हें रिपब्लिकन पार्टी का पूरा समर्थन तो मिल ही रहा है, अनेक डेमोक्रेट भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से मदद कर रहे हैं.

लेकिन, यह भी समझना जरूरी है कि अचानक से फिलीस्तीन पर अमेरिका की नीति बदलते दिखते ट्रंप के लिए आधार पूर्ववर्ती राष्ट्रपतियों ने ही तैयार किया है जिसमें बराक ओबामा भी शामिल हैं.

हालांकि ओबामा वेस्ट बैंक में कब्जाई गई जमीन पर कॉलोनी बनाने की नेतन्याहू की नीति के विरोधी थे, पर उन्होंने इज़रायल को रोकने के लिए कुछ नहीं किया. अपने चिर-परिचित अंदाज़ में वे बस लच्छेदार भाषण ही करते रहे.

यही काम उनके विदेश सचिवों (हिलेरी क्लिंटन और जॉन केरी) ने किया. हालांकि दिसंबर के आखिरी सप्ताह में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में वेस्ट बैंक और पूर्वी जेरूसलेम में इज़रायल द्वारा अनधिकृत बस्तियां बनाने के प्रस्ताव पर वीटो न करके ओबामा ने नेतनयाहू को कड़ा संदेश दिया था.

उससे कुछ दिन पहले तत्कालीन विदेश सचिव जॉन केरी ने कठोर शब्दों में कहा था कि अवैध बस्तियां बसाकर इज़रायल न सिर्फ शांति प्रयासों को अवरुद्ध कर रहा है, बल्कि एक राष्ट्र के रूप में अपने अस्तित्व के लिए भी बड़ी मुश्किलें खड़ा कर रहा है.

इज़रायल ने इसका कड़ा प्रतिवाद किया था और ट्रंप ने भी ओबामा प्रशासन के इस रूख का विरोध किया था. शून्य के मुकाबले 14 मतों से पारित सुरक्षा परिषद के इस प्रस्ताव ने एक बार फिर संयुक्त राष्ट्र के उस मत को रेखांकित किया कि वेस्ट बैंक और पूर्वी जेरूसलेम पर इज़रायल का कब्जा नाजायज है.

करीब चार दशकों में यह पहली बार हुआ था, जब सुरक्षा परिषद में जबरिया बनाये जा रहे ग़ैरक़ानूनी बस्तियों के विरोध में कोई प्रस्ताव पारित हुआ हो. वैसे तो यह एक सांकेतिक प्रस्ताव ही था, पर विवाद को निपटारे के लिए होने वाली भावी बातचीत में यह एक महत्वपूर्ण दस्तावेज होगा.

इस प्रस्ताव पर अमल की संभावनाएं इसलिए भी क्षीण थीं क्योंकि तब तक ओबामा प्रशासन के दिन गिने-चुने रह गये थे और ट्रंप राष्ट्रपति पद के लिए निर्वाचित हो चुके थे.

खिन्न इज़रायल ने इसी वजह से प्रस्ताव को मानने से इंकार करते हुए बस्तियों का निर्माण जारी रखा और ऐसा अब भी हो रहा है. इसी बीच कुछ यूरोपीय देशों ने भी इस रवैये पर आपत्ति जतायी है.

इस संदर्भ में यह बात भी उल्लेखनीय है कि रिपब्लिकन और डेमोक्रेट खेमों में कई लोगों का मानना है कि संभावित शांति प्रक्रिया में इन अवैध बस्तियों का नियंत्रण इज़रायल के पास ही रहेगा.

आज कब्जे़ वाले वेस्ट बैंक और पूर्वी जेरुसलेम में करीब 5.70 लाख इज़रायली रहते हैं. ओबामा के कार्यकाल के दौरान इज़रायली बाशिंदों की संख्या 25 फीसदी से अधिक बढ़ी है.

पिछले प्रशासन के कोई ठोस कदम नहीं उठाने से इज़रायल की हिम्मत भी बढ़ी और उसने अमेरिकी बयानों को गंभीरता से लेना बंद कर दिया. इन इलाकों में फिलीस्तीनियों की आबादी 26 लाख है. इन पर इज़रायल ने 1967 के अरब-इज़रायल युद्ध में कब्जा किया था.

पूर्वी जेरूसलेम 1967 से पहले जॉर्डन के अधीन था. हालांकि इस कब्जे को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता नहीं दी गयी है. इसीलिए इज़रायल ने जेरूसलेम को राजधानी घोषित नहीं किया है और वहां दूतावास नहीं हैं.

यदि ट्रंप अमेरिकी दूतावास को वहां ले जाते हैं, तो इसे कब्जे़ को अमेरिकी मान्यता ही मानी जाएगी. उन्होंने जिस व्यक्ति को अमेरिकी राजदूत के रूप में चुना है, उसने कब्जे़ वाले इलाके में बड़ी बस्ती बनाने के लिए धन उगाहने का काम किया हुआ है.

फिलीस्तीनी वेस्ट बैंक और गाज़ा में अपना आज़ाद देश चाहते हैं जिसकी प्रस्तावित राजधानी पूर्वी जेरूसलेम है. संयुक्त राष्ट्र के 193 सदस्य देशों में से 70.5 फीसदी देश फिलीस्तीन के पक्ष में हैं.

ट्रंप और नेतन्याहू की साझा प्रेस कॉन्फ्रेंस से पहले संयुक्त राष्ट्र के महासचिव अंतोनियो गुतेरेस ने चेतावनी दी थी कि दो अलग राज्य बनाने के अलावा इज़रायल-फिलीस्तीन विवाद के समाधान का कोई दूसरा रास्ता नहीं है. वे व्हाइट हाउस के एक अधिकारी के उस बयान की प्रतिक्रिया दे रहे थे जिसमें कहा गया था कि शांति के लिए फिलीस्तीन को अलग राज्य बनाना जरूरी नहीं है.

फिलीस्तीनी अधिकारियों ने भी अमेरिका के इस रवैये पर तीखी प्रतिक्रिया दी है. यह भी गौरतलब है कि ट्रंप संयुक्त राष्ट्र के अनुदान में कटौती करने की बात कह चुके हैं और आगे वे इस विश्व-संस्था की बात सुनने से इंकार भी कर सकते हैं.

बहरहाल, अरब में फिलीस्तीन एक बड़ा मुद्दा है. अरब राष्ट्रवाद, तानाशाहों, क्रांतियों और इस्लामिक स्टेट- सभी ने फिलीस्तीन के बहाने अपनी ज़मीन पुख्ता की है. यह और बात है कि फिलीस्तीनियों की मदद और विवाद के निपटारे में सबकी भूमिका सवालों के घेरे में है.

आज जो घटनाक्रम में तेज़ी आई है, उससे एक बार फिर यह आशंका बढ़ गयी है कि अरब में शांति के लिए की जा रही कोशिशों को धक्का लगेगा. इसका सबसे अधिक फायदा इस्लामिक स्टेट और अल-क़ायदा जैसे समूहों को होगा.

अरब देशों के शासक अपनी जनता का विश्वास बहुत पहले खो चुके हैं. आबादी के बड़े हिस्से का असंतोष और आक्रोश फिलीस्तीन की आज़ादी के नारे में लिपट कर एक विस्फोटक स्थिति पैदा कर सकता है जिसे संभाल पाना बेहद मुश्किल होगा.

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